प्रयागराज में सुदर्शन समाज महासंघ की आवश्यक बैठक सम्पन्न

0
165

प्रयागराज के अम्बर कैफे हाउस सिविल लाइंस में सुदर्शन समाज की बैठक संपन्न नई दिल्ली से चलकर के प्रयागराज पहुंचने पर सुदर्शन समाज के लोगों ने संतोष हेला को माला बुके देकर के सम्मानित किया गया। जिसमें शामिल जिला अध्यक्ष के द्वारा प्रयागराज सुदर्शन संगठन मंत्री श्री संतोष हेला जी को बुके दे करके सम्मानित किया गया। जिसमें शामिल विजय कुमार मनीष सुदर्शन राजेश कुमार रंजीत राज नीरज कुमार मयंक हेला हर्ष नारायण सोनू कुमार दीपक कुमार आर्य प्रकाश आर्य के द्वारा संपन्न हुआसमाज में धर्म और जाति बनाए रखने और उन्हें पारम्परिकपेशे से जोड़े रखने के लिए समुदाय विशेष कोसमाज के प्रभुत्व वर्ग ने हमेशा छला है। अपने अस्तित्व व पहचान के लिए जातियों में बटे समुदायों ने विकल्प भी तलाशे हैं। बौद्घ धर्म के बढ़ते प्रभाव और जातियों में बंटे हिन्दू धर्म के भीतर पैदा मुक्ति की छटपटाहट में कई तरह के धार्मिक बदलाव हुए। उन्हीं बदलावों की एक कड़ी में सुदर्शन समाज अस्तित्व में आया।1920 से 1930 ईस्वी के आस-पास की बात है जब डॉ. अंबेडकर दलितों के उद्धारक के रूप में उभरते जा रहे थे। वे दलितों को उत्पीडऩ से बचने के लिए गांव से शहर में आकर बसने की सलाह दे रहे थे साथ ही अपने पुश्तैनी व्यवसाय को छोडऩे की अपील कर रहे थे। इस समय देश के लाखों दलित अपने घृणित व्यवसाय को छोड़कर शहर में अन्य व्यवसाय की तलाश कर रहे थे। इसी दौरान पंजाब की चूहड़ा जाति(पाखाना सफाई में लिप्त थी) के लोग जो बालाशाह और लालबेग को अपना धर्म गुरू मानते थे, इनका बड़ी मात्रा में ईसाई धर्म की ओर झुकाव होने लगा और जो लोग ईसाई धर्म को ग्रहण कर लेते वे गंदे काम को करना बंद कर देते। इसी समय पंजाब के लाहौर और जालंधर इत्यादि बड़े शहरों में आर्य समाज और कांग्रेसियों का प्रभाव था उन्होंने गौर किया कि यदि ऐसा ही धर्म परिवर्तन चलता रहा तो पाखाने साफ करने वाला कोई भी नहीं रहेगा। इन्हें हिन्दू बनाए रखने के लिए हिन्दुओं ने प्रचार शुरू किया कि तुम हिन्दू हो। बाला शाह बबरीक आदि को वाल्मीकि बनाया गया। उन्हें गोमांस न खाने को राजी किया गया। एडवोकेट भगवान दास अपनी किताब बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और भंगी जातियां में लिखते है ‘बाला शाह बबरीक आदि को वाल्मीकि बनाया गया। उन्हे गोमांस न खाने को राजी किया गया। अपने खर्चे से लाल बेग के बौद्ध स्तूपों की तरह ढाई ईंट से बने थानों की जगह मंदिर बनाए जाने लगे। कुर्सीनामों की जगह रामायण का पाठ और होशियारपुर के एक ब्राह्मण द्वारा लिखी आरती ‘ओम जय जगदीश हरेÓ गाई जाने लगी। हिन्दुकरण को मजबूती देने के लिए पंजाब के एक ब्राह्मण श्री अमीचन्द्र शर्मा ने एक पुस्तक ‘वाल्मीकि प्रकाशÓ के नाम से छपवाई जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि भंगी चुहडा वाल्मीकि के वंशज नहीं, अनुयायी हैं। उधर गांधी जी ने भी इस नए नाम की सराहना की और अपना आशीर्वाद दिया।
गौरतलब है कि सन् 1931 में जाति नाम वाल्मीकि को सरकारी स्वीकृति मिल गई। पंजाब हरियाणा के बाहर अन्य भंगी जातियां इससे प्रभावित नहीं हुई। किंतु इन जातियों के लोग भी इसाई और मुस्लिम धर्म की ओर बढ़ रहे थे एवं तरक्की कर रहे थे। जो व्यक्ति इसाई या मुस्लिम धर्म में चला जाता वह गंदे पेशे को छोडïï़ देता। हिन्दुवादियों ने इन पर भी एक-एक संत थोप दिया और उस संत को उनका कुल गुरू बताया गया। उनके बीच धार्मिक किताबें मुफ्त में बांटी गर्इं, उन्हें कहा गया कि तुम्हारे कुल के देवी देवता मरही माई, देसाई दाई, ज्वाला माई, कालका माई कोई और नहीं दुर्गा के ही अन्य नाम है, इस तरह इन गैर हिन्दू जातियों को हिन्दू धर्म में बिना दीक्षा के मिला दिया गया। कुछ जातियां स्वयं धार्मिक किताबों में अपने संतों की खोज करने लगी। इसके तीन कारण थे-

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here